शमशेर बहादुर सिंह की कविता | Shamsher bahadur Singh ki Kavita in Hindi

Last Updated on September 6, 2023 by Manu Bhai

शमशेर बहादुर सिंह की कविता: हम जब भी आधुनिक हिंदी कविवियो की चर्चा करते हैं तो उनमे जो सबसे प्रमुख नाम हमारे सामने आता है वो हैं शमशेर बहादुर सिंह। शमशेर बहादुर सिंह को नागार्जुन और त्रिलोचन के साथ हिंदी कविता की ‘प्रगतिशील त्रयी’ में शामिल किया जाता है। वह नई कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। नई कविता का आरंभ अज्ञेय के ‘दूसरा सप्तक’ से माना जाता है जहाँ शमशेर एक प्रमुख कवि के रूप में शामिल हैं। 

शमशेर बहादुर सिंह जी का जन्म 13 जनवरी 1911 को जन्म मुजफ्फरनगर के एलम ग्राम में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा देहरादून में ही हुई, फिर वह उच्च शिक्षा के लिए गोंडा और इलाहबाद विश्वविद्यालय गए। 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह धर्मवती से हुआ। छह वर्षों के सहजीवन के बाद 1935 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। अल्पायु में माता की मृत्यु और युवपन में पत्नी की मृत्यु से उनके जीवन में उत्पन्न हुआ यह अभाव सदैव उनके अंदर बना रहा। इनकी शैली अंग्रेजी कवि एजरा पाउण्ड से प्रभावित है। इनके मुख्य काव्य संग्रह हैं- ‘कुछ कविताएँ, ‘कुछ और कविताएँ, ‘इतने पास अपने, ‘चुका भी नहीं हूँ मैं, ‘बात बोलेगी, ‘उदिता तथा ‘काल तुझसे होड है मेरी। ये ‘कबीर सम्मान तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता Shamsher bahadur Singh ki Kavita

1. न पलटना उधर

न पलटना उधर

कि जिधर ऊषा के जल में

सूर्य का स्तम्भ हिल रहा है

न उधर नहाना प्रिये ।


जहां इन्द्र और विष्णु एक हो

-अभूतपूर्व!-

यूनानी अपोलो के स्वरपंखी कोमल बरबत से

धरती का हिया कंपा रहे हैं

– और भी अभूतपूर्व!-

उधर कान न देना प्रिये

शंख से अपने सुन्दर कान

जिनकी इन्द्रधनुषी लवें

अधिक दीप्त हैं ।
उन संकरे छंदों को न अपनाना प्रिये

(अपने वक्ष के अधीर गुन-गुन में)

जो गुलाब की टहनियों से टेढ़े-मेढ़े हैं

चाहे कितने ही कटे-छंटे लगें, हां ।


उनमें वो ही बुलबुलें छिपी हुई बसी हुई हैं

जो कई जन्मों तक की नींद से उपराम कर देंगी

प्रिये !

एक ऎसा भी सागर-संगम है

देवापगे !


जिसके बीचोबीच तुम खड़ी हो

ऊर्ध्वस्व धारा

आदि सरस्वती का आदि भाव

उसी में समाओ प्रिये !
मैं वहां नहीं हूं !

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शमशेर बहादुर सिंह की कविता

राह तो एक थी हम दोनों की आप किधर से आए गए

राह तो एक थी हम दोनों की आप किधर से आए गए
हम जो लुट गए पिट गए, आप तो राजभवन में पाए गए

किस लीला युग में आ पहुँचे अपनी सदी के अंत में हम
नेता, जैसे घास फूस के रावण खड़े कराए गए

जितना ही लाउडस्पीकर चीख़ा उतना ही ईश्वर दूर हुआ
उतने ही दंगे फैले जितने ‘दीन धरम’ फैलाए गए

दादा की गोद में पोता बैठा ‘महबूबा! महबूबा गाए
दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए

गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए

प्रेम / शमशेर बहादुर सिंह की कविता

द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
कुशल कलाविद् हूँ न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूँ प्यार।

मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम।

उसकी बात-बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर ।

शमशेर बहादुर सिंह की कविता – उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता) / शमशेर बहादुर सिंह

काल,
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ’ ‘काल’ ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है…

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है

(‘काल तुझ से होड़ है मेरी’ नामक कविता-संग्रह से)

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