Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाएँ

Last Updated on July 18, 2023 by Manu Bhai

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय Bhartendu Harishchandra

श्री भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ ( Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye ) साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त है, उन्होंने कविता, नाटक, और व्‍यंग्‍य आदि कई विधाओं में रचनाएँ लिखी हैं. भारतेन्दु जी की कई नाटक और काव्‍य-कृतियाँ प्रकाशित होने के तुरंत बाद ही प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गए और आज भी उन सभी रचनाओं को हिंदी भाषा की महत्‍वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है. भारतेन्दु हरिश्चंद्र हमारे आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ-साथ हिंदी रंगमंच के पितामह भी कहे जाते हैं. भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी को हिंदी के अलावा अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी और उर्दू  जैसी कई भाषाओँ का भी बहुत हीं अच्छा ज्ञान था। 

Bhartendu Harishchandra ki Rachnayen
भारतेन्दु हरिश्चंद्र

भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जन्मदिन का समय ———- 09 सितम्बर 1850 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र पिता का नाम ———- गोपाल चंद्र (कवी) उपनाम गिरधरदास 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्मस्थान

Birth Place of Bhartendu Harishchandra ———-  काशी (वाराणसी), उत्तर प्रदेश, भारत

भारतेन्दु हरिश्चंद्र का उपनाम ————- गजलें कहते हुए ‘रसा’ लिखते थे

भारतेन्दु हरिश्चंद्र का निधन ————- 06 जनवरी 1885. 

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कुछ प्रमुख रचनायें और कृतियां Bhartendu harishchandra ki Rachnayen

1 . भक्तसर्वस्व 1870 ईसवी 2. प्रेममालिका 1871 ईसवी. 3. प्रेम-माधुरी 1875 ईसवी 4 . प्रेम-तरंग 1877 ईसवी 5 . उत्तरार्द्ध-भक्तमाल 1876 ईसवी  6 . प्रेम-प्रलाप 1877 ईसवी 7 . गीत-गोविंदानंद 1877-78 ईसवी 8 . होली 1879 ईसवी 9 . मधु-मुकुल 1881 ईसवी 10 . राग-संग्रह 1880 ईसवी 11 . वर्षा-विनोद 1880 ईसवी 12 . फूलों का गुच्छा 1882 ईसवी 13 . प्रेम-फुलवारी 1883 ईसवी 14 . कृष्ण-चरित्र 1883 ईसवी । इनके अलावा, तन्मय लीला, नये ज़माने की मुकरी, दानलीला, सुमनांजलि, बन्दर सभा और बकरी विलाप (हास्य व्यंग) 

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की रचनाएँ (Bhartendu harishchandra ki Rachnayen) 

1 . भारतेन्दु जी की होली कविता 

कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥

पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥

तबौ नहिं हबस बुझाई।

भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥

तुम्हें कैसर दोहाई।

कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।

(श्री भारतेन्दु हहिश्चन्द्र जी की रचना ‘मुशायरा’ से लिया गया है।) 

 

होली डफ की 

तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी।
इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनौ जोरा-जोरी।
छोड़ि दे ईकि बंद चोलिया पकरै चोर हम अपनौ री।
‘हरीचंद’ इन दोउन मेरी नाहक कीनी चित चोरी री।

देखो बहियाँ मुरक मेरी ऐसी करी बरजोरी।
औचक आय धरी पाछे तें लोकलाज सब छोरी।
छीन झपट चटपट मोरी गागर मलि दीनी मुख रोरी।
नहिं मानत कछु बात हमारी कंचुकि को बँद खोरी।
एई रस सदा रसि को रहिओ ‘हरीचंद’ यह जोरी। 

 

2 . भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचना / कविता संग्रह, वर्षा-विनोद 

Varsha-Vinod Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye aur Kavita Sangrah   

सावन आवत ही सब द्रुम नए फूले

सावन आवत ही सब द्रुम नए फूले
ता मधि झूलत नवल हिंडोरे।।
तैसीय हरित भूमि तामै बीरबधू सोहै
तैसीयै लता झुकि रही चहुँ कोरे ।।
तैसोई हिंडोरो पँच-रैंग बन्यो सोहत
तैसी ही ब्रज-बधू घेरे सब ओरे ।।
‘हरीचंद’ बलिहारी तापै झूलै राधाप्यारी
मोहन झुलावैं झोंटा देत थोरे थोरे।।

प्रिय बिन बरसत आयो पानी

प्रिय बिन बरसत आयो पानी ।
चपला चमकि चमकि डरपावत, मोहि अकेली जानी ।।
कोयल कूक सुनत जिय फाटत यह बरषा दुखदानी ।
‘हरीचंद’ पिय श्याम सुन्दर बिनु बिरहिनि भई है दिवानी ।। 

 

हरि बिनु काली बदरिया छाई

हरि बिनु काली बदरिया छाई ।
बरसत घेरि घेरि चहुँ दिसि तें दामिनि चमक जनाई ।।
कोइलि कुहुकि कुहुकि हिय मेरे बिरहा-अगिन बढ़ाई ।
दादुर बोलत ताल-तलैयन मानहुँ काम-बधाई ।।
कौन देस धाये नंद-नन्दन पातीहू न पठाई ।
‘हरीचंद’-बिनु बिकल बि२हिनी परी सेज मुरझाई।।

 

बीत चली सब रात

बीत चली सब रात न आए अब तक दिल-जानी ।
खड़ी अकेली राह देखती बरस रहा पानी ।।
अंधेरी छाय रही भारी ।
सूझत कहूं पंथ सोच करै मन मन में नारी।
न कोई समझाबनवारी ।
चौंकि चौंकि के उझकि झरोखा झौंक रही प्यारी ।।
विरह से व्याकुल अकुलानी ।। 

3 . भारतेन्दु हरिश्चंद्र की रचना कृष्ण चरित्र/चरित

Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye Krishna Charitra

हरि हम कौन भरोसे जियें ।

हरि हम कौन भरोसे जियें ।
तुमरे रुख फेरे करुनानिधि काल-गुदरिया सियें।।
यों तो सब ही खात उदर भरि अरु सब ही जल पियें।
पैधिक धिक तुम बिन सब माधो वादिहिं सासा लियें।।
नाथ बिना सब व्यर्थ धरम अरु अधरम दोऊ कियें।
‘हरीचंद’ अब तो हरि बनिहै कर-अवलम्बन दीएँ ।। 

 

हरि मोरी काहें सुधि बिसराई ।

हरि मोरी काहें सुधि बिसराई ।
हम तो सब बिधि दीन हीन तुम समरथ गोकुल-राई ।।
मों अपराधन लखन लगे जौ तो कछु नहिं बनि आई ।
हम अपुनी करनी के चूके याहू जनम खुटाई ।।
सब बिधि पतित हीन सब दिन के कहँ लौं कहौं सुनाई ।
‘हरीचंद’ तेहि भूलि बिरद निज जानि मिलौ अब धाई ।। 

 

जयति कृष्ण-पद-पद्य-मकरन्द रंजित

जयति कृष्ण-पद-पद्य-मकरन्द रंजित
नीर नृप भगीरथ बिमल जस-पताके ।
ब्रह्म-द्रवभूत आनन्द मंदाकिनी
अलक नंदे सुकृति कृति-बिपाके ।
शिव-जरा-जूट गह्वर-सघन-वन-मृगी
विधि-कमंडलु-दलित-नीर-रूपे ।

 

प्रात समै प्रीतम प्यारे को 

प्रात समै प्रीतम प्यारे को मंगल बिमल नवल जस गाऊँ ।
सुन्दर स्याम सलोनी मूरति भोरहि निरखत नैन सिराऊँ ।।
सेवा करों हरों त्रैविधि-भय तब अपने गृह-कारज जाऊँ ।।
“हरीचंद” मोहन बिनु देखे नैनन की नहिं तपत बुझाऊँ ।।

 

आजु दोउ बैठे मिलि वृंदावन नव निकुंज 

आजु दोउ बैठे मिलि वृंदावन नव निकुंज
सीतल बयार सेवें मोदीरे मन मैं ।
उड़त अंचल चल चंचल दुकुल कल
स्वेद फूल की सुगंध छायी उपवन में ।
रस भरे बातें करें हंसि-हंसि अंग भरें
बीरी खात जाता सरसात सखियन में ।
“हरीचन्द’ है राधाप्यारी देखि रीझे गिरिधरी
आनंद सों उमगे समात नहिं तन में ।। 

 

सखी मनमोहन मेरे मीत । 

सखी मनमोहन मेरे मीत ।
लोक वेद कुल जानि छाँड़ि हम करी उनहिं सों प्रीति ।।
बिगरी जग के कारण सगरे उलटौ सबही नीत ।
अब तौ हम कबहूं नहिं तजिहैँ पिय की प्रेम प्रतीत ।।
यहै बाहुबल आस यहै इक यहै हमारी रीत ।
‘हरीचंद’ निधरक बिहरैंगी पिय बल दोउ जग जीत ।। 

4 . भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कुछ प्रसिद्ध कविता/ रचनाएँ Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye / Kavita 

गंगा वर्णन Hindi Kavita

सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥

श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥

शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥

सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥ 

 

यमुना-वर्णन (भारतेन्दु की हिंदी कविता) 

Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
झुके कूल सों जल-परसन हित मनहु सुहाये॥
किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप वारन तीर कौं, सिमिटि सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे, निरखि नैन मन सुख लहत॥१॥

तिन पै जेहि छिन चन्द जोति रक निसि आवति ।
जल मै मिलिकै नभ अवनी लौं तानि तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा ।
तन मन नैन जुदात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
सो को कबि जो छबि कहि , सकै ता जमुन नीर की ।
मिलि अवनि और अम्बर रहत ,छबि इक – सी नभ तीर की ॥२॥

परत चन्र्द प्रतिबिम्ब कहूँ जल मधि चमकायो ।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ सोइ मन भायो॥
मनु हरि दरसन हेत चन्र्द जल बसत सुहायो ।
कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो ॥
कै रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है ।
कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है ॥३ ॥

कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत ।
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत ।।
मनु ससि भरि अनुराग जामुन जल लोटत डोलै ।
कै तरंग की डोर हिंडोरनि करत कलोलैं ।।
कै बालगुड़ी नभ में उड़ी, सोहत इत उत धावती ।
कई अवगाहत डोलात कोऊ ब्रजरमनी जल आवती ।।४।।

मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटी जात जामुन जल ।
कै तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अबिकल ।।
कै कालिन्दी नीर तरंग जितौ उपजावत ।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।।
कै बहुत रजत चकई चालत कै फुहार जल उच्छरत ।
कै निसिपति मल्ल अनेक बिधि उठि बैठत कसरत करत ।।५।।

कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मज्जत पारावत ।
कहुँ काराणडव उडत कहूँ जल कुक्कुट धावत ।।
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ भ्रम्रावलि गावत ।।
तट पर नाचत मोर बहु रोर बिधित पच्छी करत ।
जल पान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब धरत ।।६।। 

दशरथ विलाप Hindi poetry 

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।

बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था ।।

छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।

छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।

बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।

किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।

गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है ।।

कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।

गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।

मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।

कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।

लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।

मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।

अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।

मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।

हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।

कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।

कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।

हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।

जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।

कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।

न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।

मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।

मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।

कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।

कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।

मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।

कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की उर्दू का स्यापा 

है है उर्दू हाय हाय / भारतेंदु हरिश्चंद्र 

है है उर्दू हाय हाय । कहाँ सिधारी हाय हाय ।
मेरी प्यारी हाय हाय । मुंशी मुल्ला हाय हाय ।
बल्ला बिल्ला हाय हाय । रोये पीटें हाय हाय ।
टाँग घसीटैं हाय हाय । सब छिन सोचैं हाय हाय ।
डाढ़ी नोचैं हाय हाय । दुनिया उल्टी हाय हाय ।
रोजी बिल्टी हाय हाय । सब मुखतारी हाय हाय ।
किसने मारी हाय हाय । खबर नवीसी हाय हाय ।
दाँत पीसी हाय हाय । एडिटर पोसी हाय हाय ।
बात फरोशी हाय हाय । वह लस्सानी हाय हाय ।
चरब-जुबानी हाय हाय । शोख बयानि हाय हाय ।
फिर नहीं आनी हाय हाय ।

 

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3 thoughts on “Bhartendu Harishchandra Ki Rachnaye भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाएँ”

  1. भाई आप्पने बहुत ही अच्छी जानकारी दी है। आपका ब्लॉग भी बहुत ही रोचक जानकारियों से भरपूर है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी की अच्छी अच्छी कवितायें लिखी है आपने। पढ़कर मजा आया। धन्यवाद

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