रामधारी सिंह दिनकर की कविता संग्रह एवं जीवन परिचय [ Ramdhari Singh Dinkar Poems ]

Last Updated on August 31, 2023 by Manu Bhai

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता संग्रह एवं जीवन परिचय  

[Ramdhari Singh Dinkar Poems and Biography

रामधारी सिंह दिनकर की कविता के बारे में बताने से पहले आपको रामधारी सिंह दिनकर का संक्षिप्त परिचय दे देना चाहता हूँ। तो चलिए शुरू करते हैं, भारत के वीर रस के महानतम सुप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ कवी एवं श्रेष्ठ लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी के जीवन के बारे में। 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ एक भारतीय सर्वश्रेष्ठ हिंदी कवि, लेखक, निबंधकार, देशभक्त और अकादमिक थे, और उनको भारत के महत्वपूर्ण आधुनिक हिंदी कवियों में से एक माना जाता है। भारतीय स्वतंत्रता से पहले के दिनों में लिखी गई उनकी राष्ट्रवादी कविता के परिणामस्वरूप वे विद्रोह के कवि के रूप में उभरे थे एवं उनकी लिखी कविताओं ने वीर रस का संचार किय। और उनकी प्रेरक देशभक्ति रचनाओं के कारण उन्हें राष्ट्रकवि (‘राष्ट्रीय कवि’) के रूप में सम्मानित किया गया। जिस प्रकार रूस के लोगों के लिए पुश्किन लोकप्रिय थे वैसे ही भारतीयों और हिंदी भाषियों के लिए ‘दिनकर’ कविता प्रेमियों से जुड़े हुए हैं। 

‘दिनकर’ ने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन किया, और अपनी कविताओं में विद्रोह तथा क्रांति की भावनाओं को अभिव्यक्त किया लेकिन बाद में वह गांधीवादी बन गए। हालांकि, वे खुद को “बुरा गांधीवादी” कहते थे क्योंकि उन्होंने युवाओं में आक्रोश और बदले की भावना का समर्थन किया था।

‘कुरुक्षेत्र’ अपनी कविता संग्रह में, उन्होंने स्वीकार किया कि युद्ध विनाशकारी है लेकिन तर्क दिया कि स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक भी है। वह उस समय के प्रमुख राष्ट्रवादियों जैसे राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, श्री कृष्ण सिन्हा, रामब्रीक्ष बेनीपुरी और ब्रज किशोर प्रसाद के करीबी थे। 

कहते हैं की आपातकाल के दौरान, जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में एक लाख (100,000) लोगों को सम्बोधित करते हुए दिनकर की प्रसिद्ध कविता: “सिंघासन खाली करो के जनता आती है”  का पाठ किया था।

 

रामधारी सिंह दिनकर का संक्षिप्त जीवन परिचय 

  • पूरा नाम – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
  • जन्म की तिथि – 23 सितंबर 1908
  • जन्म स्थान – सिमरिया गांव, बेगूसराय, बिहार
  • पिता का नाम – रवि सिंह (किसान)
  • माता – मनरूप देवी
  • मृत्यु – 24 अप्रैल 1974 (65 वर्ष की आयु में)
  • मृत्यु स्थान – चेन्नई (राष्ट्रकवि दिनकर जी की जीवनी) .

 

दिनकर जी के प्रारंभिक जीवन काल 

दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था (तब बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत का एक हिस्सा था)। दिनकर जी का जन्म एक भूमिहार परिवार में पिता, बाबू रवि सिंह और माता मनरूप देवी के घर हुआ था। पिता रवि सिंह एक सामान्य किसान थे और माता गृहणी थीं। मात्रा 2 वर्ष के बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु के बाद दिनकर समेत उनके सभी भाई बहनो के लालन-पालन का भार उनकी विधवा माता कन्धों पर आ गया।

जिसका निर्वहन उन्होंने अच्छे से किया। ‘दिनकर’ के जीवन पर  जहाँ प्रकृति प्रेम का प्रभाव उनके पैतृक गाँव के खेतों की हरियाली, आम के बगीचों और बांसों के झुरमुट से पड़ा वहीं पिता की मृत्यु के बाद, बचपन से जवानी तक की कड़वाहटों का प्रभाव भी उनके रचनाओं में देखने को मिल जाता है। 

दिनकर जी का व्यक्तित्व एक लंबा आदमी का था , ५ फीट ११ इंच लंबा, एक चमकदार गोरा रंग, लंबी ऊँची नाक, बड़े कान और चौड़े माथे के साथ, वह एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनि थे, ऐसा रूप जिसपर किसी का भी ध्यान चला जाय। 

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रामधारी सिंह दिनकर की शिक्षा

सर्वप्रथम रामधारी सिंह दिनकर जी की प्रारम्भि शिक्षा घर पर ही एक संस्कृत के विद्वान पंडित से शुरू होकर गाँव के प्राथमिक विद्यालय से पूरी की थी । माध्यमिक शिक्षा गाँव के ही निकट बोरो गाँव के मिडिल स्कूल से प्राप्त की। और ऐसा माना जाता है उनके किशोर मन मष्तिस्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल मोकामाघाट से उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा ली।

दिनकर जी के हाई स्कूल के पढ़ाई दौरान ही वैवाहिक बंधन में बंध जाते हैं, उनकी शादी बिहार के समस्तीपुर जिले के तबहका गांव में हुई थी. एवं कुछ समय बाद हीं एक पुत्र के पिता भी बन जाते हैं। फिर 1928 में मैट्रिक पास कर के इंटरमीडिएट और 1932 में  इतिहास में स्नातक (बी. ए. ऑनर्स) की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से किया। 

एक छात्र के रूप में, दिनकर को दिन-प्रतिदिन के मुद्दों से जूझना पड़ा, कुछ उनके परिवार की आर्थिक परिस्थितियों से संबंधित थे। जब वे मोकामा हाई स्कूल के छात्र थे, तो शाम चार बजे स्कूल बंद होने तक उनके लिए रुकना संभव नहीं थ। क्योंकि लंच ब्रेक के बाद उन्हें घर वापस जाने के लिए स्टीमर पकड़ने के लिए कक्षा छोड़नीपड़ती थ। वह छात्रावास में रहने का जोखिम नहीं उठा सकते थे, जिससे वह सभी अवधियों में भाग ले सकते थ।

बात साफ़ थी, जिस छात्र के पैरों में पहनने को जूते नहीं थे, वह हॉस्टल की फीस कैसे भरेगा? बाद में उनकी कविता में गरीबी के प्रभाव को देखने को मिला। यही वह माहौल था जिसमें दिनकर बड़े हुए और कठोर विचारों के राष्ट्रवादी कवि बने। 

एक छात्र के रूप में, उनके पसंदीदा विषय इतिहास, राजनीति और दर्शन थे। स्कूल में और बाद में कॉलेज में, उन्होंने हिंदी, संस्कृत, मैथिली, बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। दिनकर इकबाल, रवींद्रनाथ टैगोर, कीट्स और मिल्टन से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की कृतियों का बंगाली से हिंदी में अनुवाद किया था।

 

स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी 

जब दिनकर ने अपनी किशोरावस्था में कदम रखा, तब महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हो चुका था। १९२९ में, जब मैट्रिक के बाद, उन्होंने इंटर की पढ़ाई के लिए पटना कॉलेज में प्रवेश लिया; यह आंदोलन आक्रामक होने लगा। 1928 में, साइमन कमीशन आया, जिसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन हो रहे थे। पटना में भी प्रदर्शन हुए और दिनकर ने भी शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किए।

पटना के गांधी मैदान की रैली में हजारों लोग आए, जिसमें दिनकर ने भी भाग लिया। साइमन कमीशन के विरोध के दौरान, ब्रिटिश सरकार की पुलिस ने पंजाब के शेर, लाला लाजपत राय पर बेरहमी से लाठीचार्ज किया, जिससे लाला लाजपत राय ने दम तोड़ दिया। पूरे देश में उथल-पुथल मची हुई थ। इन आंदोलनों के कारण दिनकर का युवा दिमाग तेजी से कठोर राष्ट्रवादी बन गया। उनकी भावनात्मक प्रकृति काव्य ऊर्जा से भरी हुई थी।

 

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दिनकर जी के कार्यक्षेत्र 

 

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविताएं (ramdhari singh dinkar poems in hindi)

1.  रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘तांडव’

नाचो, हे नाचो, नटवर !
चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर!
नाचो, हे नाचो, नटवर !

आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
अमर नृत्य – गति, ताल चिरन्तन,
अंगभंग, हुंकृति-झंकृति कर थिरको हे विश्वम्भर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !

सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
उठे सृष्टि-हृद में नव-स्पन्दन,
विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन । 

स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर ।
नाचो, हे नाचो, नटवर !

नचे तीव्रगति भूमि कील पर,
अट्टहास कर उठें धराधर,
उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,
गरजे उथल-पुथल कर सागर ।
गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
अन्ध-धूम्र हो व्याप्त भुवन में,
बरसे आग, बहे झंझानिल,
मचे त्राहि जग के आँगन में,
फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर।
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन
आह ! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।
पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,
फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में,
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,
अभय विश्व के उर-अन्तर में,

गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,
लगे आग इस आडम्बर में,
वैभव के उच्चाभिमान में,
अहंकार के उच्च शिखर में,

स्वामिन्‌, अन्धड़-आग बुला दो,
जले पाप जग का क्षण-भर में।
डिम-डिम डमरु बजा निज कर में
नाचो, नयन तृतीय तरेरे!
ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो
चिता-भूमि बन जाय अरेरे !

रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

2. रामधारी सिंह दिनकर की कविता सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है

Famous Ramdhari Singh Dinkar poems

सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में ?
खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ ?
जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं।

कंकरियाँ जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं, लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिनगारी है?

दिसम्बर 1932

  • रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘रश्मिरथी’ 

  • तृतीय सर्ग 
  • रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 1 

हो गया पूर्ण अज्ञात वास,

पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,

वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,

कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,

पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,

वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है

रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,

झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,

बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,

हम उनको गले लगाते हैं।

रामधारी सिंह दिनकर की कविता रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 2 

वसुधा का नेता कौन हुआ?

भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?

नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,

विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,

सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,

तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,

जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,

आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,

पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,

बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,

छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,

लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,

वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,

मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,

तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,

क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम,

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें, आगे क्या होता है।

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3 

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र। 

रामधारी सिंह दिनकर की कविता समर शेष है

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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में ।

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा ।

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं।

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे।

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो,
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे,
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं,
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल,

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना,
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे।

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

~ रामधारी सिंह “दिनकर”

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मित्रो अभी यह लेख पूर्ण नहीं है , इसमें बहुत साड़ी जानकारियां एवं रामधारी सिंह दिनकर जी की कई सारी कविताओं को जोड़ना बाकी है। 

धन्यवाद 

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