Last Updated on July 18, 2023 by Manu Bhai
Holi Kyu Manaya Jata Hai “होली कब और क्यों मनाई जाती है”?
Holi Kyo Manaya Jata Hai: रंगों का त्यौहार होली (Holi) का नाम आते ही सबके मन में रंगों के गुब्बारे फूटने लगते हैं, सबके मन में एक हीं ख्याल आता है कि रंगों की दुनियाँ में, रंगों के बादल से रंगों की बारिश और उसमें भीगते हमारे बदन. होली एक ऐसा पर्व है जिसे बच्चे से लेकर बूढ़े तक धूमधाम से मनाते हैं.
हमारे चारो ओर रंग-बिरंगे चेहरे, हुड़दंगी टोली, भाभियों और देवरों का मजाक मन में हिचकोले मारने लगता है. मानव मन के चरम उल्लास का नाम हीं होली का त्योहार है. होली हमारे देश भारत का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्योहार है. होली के रंगों से प्रकृति का भी रंग अति सुन्दर और मोहक बन जाता है.
रंगों का त्यौहार होली कब है
“Holi” A Festival of Colors
होली का पर्व प्रेम, उल्लास, खुशियाँ, एकता, सुख-शांति एवं बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है.
हमारे देश में रंगों का त्यौहार होली बहुत प्राचीन उत्सव है.
होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और दुनियां में कहीं भी रहने वाले हिन्दुओं का त्यौहार है.
कब मनाते हैं रंगों का त्यौहार होली?
रंगों का त्यौहार होली हिंदू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष वसंत ऋतु के फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. जो कि हिन्दु पंचाग के अनुसार साल का अंतिम दिन होता है. इसके दूसरे दिन से चैत मास का प्रारंभ जो नये साल का प्रथम दिन है और इस नववर्ष का स्वागत बड़े धूमधाम से रंग-अबीर खेल कर करते हैं.
यह पर्व हर साल इंग्लिश कैलेंडर के अनुसार ज्यादातर बार मार्च महीने में और कभी कभी फरवरी के महीने में भी पड़ता है.
Holi Kyu Aur Kab Manaya Jata Hai रंगों का त्यौहार होली पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता.
त्यौहार का पहला दिन होलिका दहन
त्यौहार का पहला दिन होलिका दहन के रूप में मनाते हैं, इसदिन होलिका जलायी जाती है.
इस पावन दिन को लोग गाँव-मोहल्ले के चौक पर लकड़ी, गोयठा, और अन्य प्रकार के जलने योग्य वस्तु को जमा कर के एक बड़ा सा ढेर बनाते हैं.
और फिर शाम को शुभ मुहूर्त में भक्त प्रहलाद और होलिका के पौराणिक कथा के अनुसार पूजा पाठ कर के उस लकड़ी के ढेर में आग लगा देते हैं. और प्राचीन परंपरा का निर्वहन कर रंगों का त्यौहार होली का आगाज कर देते हैं. होली के दूसरे दिन का प्रारम्भ, होलिका दहन के बचे हुये राख़ से होली खेलकर होती है.
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त्यौहार का दूसरा दिन: धुलेंडी या धुरड्डी
त्यौहार का दूसरा दिन, जिसे मुखतः धुलेंडी या धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन कई अन्य नाम से भी जानते हैं.
धुलेंडी को हीं पर्व के मुख्य दिन के रूप में मनाते हैं. इसदिन लोग एक दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि लगाते हैं, ढोल-बाजे के साथ धूम-धड़ाके से होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं.
ऐसी मान्यता है कि होली के दिन लोग पुरानी से पुरानी कटुता और दुश्मनी को भुलाकर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को बुरी तरह से रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता रहता है. फिर दिन के दूसरे पहर के बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं.
रंगों का त्यौहार होली क्यों मनाया जाता है? Holi Kyu Manaya Jata Hai
वैसे तो रंगों के त्यौहार होली को मनाने के पीछे कई किस्से कहानियाँ जानने को मिलती है, परन्तु सबसे प्रचलित, प्राचीन और पौराणिक कथा श्रीहरी(विष्णु) भक्त प्रहलाद और होलिका का है. इस पौराणिक कथा के अनुसार :
आज से हजारों वर्ष पूर्व प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नाम का एक असुर राजा रहता था. उस असुर राजा को ब्रह्मा जी से ये वरदान मिला हुआ था कि उसे न कोई मनुष्य, न पशु, न देव और ना हीं कोई दानव मार सकता है.
उसने ये भी वरदान ले रखा था कि उसे ना तो अस्त्र से ना सस्त्र से ना घर के अंदर ना बाहर, ना तो आकश में ना पृथ्वी पर और ना शाम को और ना ही सुबह को, और ना दोपहर को ना ही रात को उसे कोई मार सकता है.
ब्रह्मा जी के वरदान के कारण वह असुर आपार शक्तिशाली और अहंकारी हो गया था. उसने भगवान से मिली शक्ति और वरदान का दुरूपयोग करना शुरू कर दिया. ब्रह्म जी से मिले वरदान के कारण हिरण्यकश्यप अति अहंकारी और दुष्ट बन चूका था और खुद को हीं भगवान समझने लगा था.
हिरण्यकश्यप अपने राज्य के लोगों पर खुब अत्याचार करता और उन्हें भगवान विष्णु की पुजा करने से रोकता था. वह अपनी प्रजा से अपनी हीं यानि हिरण्यकश्यप की पुजा करने का दबाव बनाता था. क्योंकि वह अपने भाई की मृत्यु का बदला लेना चाहता था जिसे भगवान विष्णु ने मारा था.
उस असुर राजा हिरण्यकश्यप का एक पुत्र भी था, जिसका नाम प्रहलाद था. प्रहलाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे. ऐसा माना जाता है कि जब प्रहलाद अपनी माँ के कोख में थे तब से हीं श्री हरी का जाप करते थे जिसका अनुभव उनकी माता अक्सर किया करती थी.
प्रहलाद हिरण्यकश्यप के पुत्र होने के बावजूद भी भगवान विष्णु की भक्ति करते थे और अपने पिता के बातों को अनसुना कर देते थे. उधर हिरण्यकश्यप का भय लोगों में इस कदर था की लोग उसे ईश्वर मानने के लिए मजबूर थे जबकि प्रहलाद को उसका कोई भय नहीं था.
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लाख समझाने के बावजूद भी प्रहलाद ने श्रीहरी भक्ति नहीं छोड़ी और उल्टा ही अपने पिता हिरण्यकश्यप को भी भगवान के चरणों में आने का ज्ञान भी देते थे. हिरण्यकश्यप को ये कतई मंजूर नहीं था कि उसका पुत्र विष्णु कि भक्ति करे.
क्रोधवश हिरण्यकश्यप ने अपने ही पुत्र प्रहलाद को मारने की योजना बनाई. उसने पहले तो प्रहलाद को पहाड़ की ऊँची चोटी से फिकवाकर मारने का प्रयास किया पर प्रहलाद को कुछ भी नहीं हुआ वह सकुशल बच गये. फिर उसने प्रहलाद को गर्म कड़ाही में डलवा कर मारना चाहा फिर भी भगवान विष्णु की असीम कृपा से प्रहलाद सुरक्षित बच गये.
जब हिरण्यकश्यप अपनी कई घिनौने प्रयासों में भी प्रहलाद का बाल भी बाक़ा ना कर सका तो उसने एक षड़यंत्र के तहत अपनी बहन होलिका को प्रहलाद को मारने की जिम्मेदारी दी. होलिका को भी भगवान शिव से वरदान मिला हुआ था की उसे अग्नि में जलाया नहीं जा सकता है. परन्तु एक शर्त के साथ, कि वरदान में उसे जो चादर वस्त्र मिला था उसको अपने शरीर पर ओढ़ना होगा. हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन को ये आदेश दिया कि तुम वह वस्त्र ओढ़कर प्रहलाद को गोद में बैठाकर अग्नि में बैठ जाओ जिससे जलकर प्रहलाद कि मृत्यु हो जाय.
जब होलिका ने प्रहलाद को अपने गोद में लेकर अग्नि में बैठी तो उस समय भी प्रहलाद भगवान विष्णु का हीं श्रीहरी जाप कर रहे थे. भला भगवान अपने भक्तों को यूँ हीं दुष्टो द्वारा मरते कैसे देख सकते थे. भगवान भी अपने भक्तों कि रक्षा करने में परम आंनद कि अनुभूति करते हैं सो भगवान विष्णु ने भी बिना देर किये हीं एक तूफान ला दिया जिससे होलिका के शरीर से लिपटा हुआ वरदान वस्त्र उड़ गया और होलिका उस अग्नि में भस्म हो गई. जबकि प्रहलाद को अग्नि ने नाम मात्र का भी हानि नहीं पहुंचाई. भगवान श्रीहरी विष्णु की असीम कृपा से भक्त प्रहलाद एकबार फिर सुरक्षित बच गये.
हिन्दु धर्म में ऐसी मान्यता है कि आज हीं के दिन यानि फागुन पूर्णिमा को हीं यह घटना घाटी थी. जिसे बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है.
(कुछ समय पश्चात् हिरण्यकश्यप ने फिर से प्रहलाद को मारने का प्रयास किया और भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार ले कर प्रहलाद की जान बचाई और हिरण्यकश्यप को मृत्यु के घाट उतार दिया. )
मथुरा की होली की खुमारी
पुरे भारत वर्ष में होली की तैयारियां जोर शोर से जारी है मगर कान्हा की नगरी पहले से हीं होली की खुमारी में डूब चुकी है. भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली ब्रज की सभी होलियों के दर्शन होते हैं.
भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा की होली को देखने देश भर से ही नहीं अपितु विदेशों से भी सैलानियों की भीड़ उमड़ती है. जहां देश के दूसरे भागों में रंगों और गुलाल से होली खेली जाती है वहीं मथुरा हीं एक ऐसी जगह है जहां रंगों के अलावा लड्डूओं और फूलों से भी होली खेलने का रिवाज़ है. और तो और इस प्रेम के त्यौहार होली को लाठियों से खेलने का अगर कहीं रीवाज है तो वो मथुरा में ही है.
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ऐसा विश्वास है कि आज भी मथुरा में श्रीकृष्ण और राधा रानी निवास करते हैं, इसलिए परंपरागत रूप से पूजा-पाठ से लेकर उत्सव भी ऐसे मनाए जाते हैं जैसे स्वयं भगवान श्रीकृष्णा एवं राधारानी खुद इसका हिस्सा हैं. कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण, राधा के गोरे होने और अपने सांवले रंग की शिकायत मां यशोदा से किया करते थे. इसलिए भगवान श्रीकृष्ण राधा रानी को अपने जैसा बनाने के लिए उनपर अलग-अलग रंग डाल दिया करते थे. ऐसा करने के लिए नंदगांव से श्रीकृष्ण और उनके मित्र बरसाने आते थे और श्री राधारानी के साथ उनकी सखियों पर भी रंग व ग़ुलाल फेंकते थे. उन्हें ऐसा करते देख गांव की स्त्रियां लाठियों से उनकी पिटाई करती थी.
यही मुख्य कारण माना जाता है कि राधा-कृष्ण की बाकी लीलाओं की तरह ये भी एक परंपरा बन गई जिसे यहां लट्ठमार होली के तौर पर आज भी निभाया जाता है.
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Bahut badhiya kahani likhe hai,,very very thanks for this
Thank you.