Last Updated on August 31, 2023 by Manu Bhai
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की प्रसिद्ध कविता “हम पंछी उन्मुक्त गगन के”
“हम पंछी उन्मुक्त गगन के” डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन की रचना है। शिवमंगल सिंह “सुमन” हिंदी के एक जानेमाने महान कवि थे। हिन्दी भाषा के कई ऐसे कवि हुए, जिनकी कविता जनचेतना के लिए जीवन समर्पित थी। ऐसे कवियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। नागार्जुन इस परम्परा के पहले कवि रहे हैं। उनके बाद दुष्यंत कुमार समेत कई कवियों ने इस काम की जिम्मेदारी ली। इसी परम्परा के कवि रहे हैं शिवमंगल सिंह ‘सुमन’। हिंदी कविता की वाचिक परंपरा उनकी लोकप्रियता के साक्षी है। वे देशभर के काव्य प्रेमियों को अपने गीतों की रवानी से अचंभित कर देते थे। हिन्दी के इस महान कवि की एक रचना है “हम पंक्षी उन्मुक्त गगन के” तो आज आपके लिए प्रस्तुत है उनकी यह सुन्दर कविता।
“हम पंछी उन्मुक्त गगन के” लेखक के बारे में कुछ अनजान बातें
आज आपलोगो को सुमन जी के बारे में एक सत्य बता दू, यह बात कई लोगों को नहीं पता होगी, भारत के हमारे पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शिक्षक रह चुके हैं शिवमंगल सिंह सुमन। जब जनवरी 1999 में शिवमंगल सिंह सुमन जी को पद्मभूषण सम्मान दिया गया। जैसा की देश में परम्परा के मुताबिक पद्मभूषण सम्मान राष्ट्रपति भवन में दिया जाता है।
जब सुमन जी राष्ट्रपति भवन पहुंचे। उस समय देश के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। राष्ट्रपति भवन में विशिष्ट दर्शकों की कतार में पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल, सोनिया गांधी, लाल कृष्ण आडवाणी और उप राष्ट्रपति कृष्णकांत समेत कई लोग थे। लेकिन जब वाजपेयी जी का ध्यान वहाँ कतार में बैठे शिवमंगल सिंह सुमन पर पड़ी तो वाजपेयी जी ने गुरु-शिष्य परंपरा को जीवंत करते हुए सबसे पहले सुमन जी से मिलाने पहुंच गए। इस बात का जिक्र वरिष्ठ पत्रकार कन्हैलाल नंदन ने ‘क्या खोया क्या पाया’ किताब में किया है।
कहते हैं की पूर्व प्रधानमंत्री अत जी की कविता में शिवमंगल सिंह सुमन की छाप दिखती है।
हम पंछी उन्मुक्त गगन के “कविता’
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे।
हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।
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